Wednesday, March 17, 2010

क्यूँ सोंचता कहीं हो ना जाये सांझ

सोंच रहा था गंगा तट पर बैठे,
सूर्यास्त है निश्चित ,सूर्युदय के बाद
पर डर जाता हूँ सोंच , अगर शीघ्र आ गयी वोह सांझ
देख गंगा को मैंने सोंचा ,क्या जीवन है केवल एक नाट्य
मन विच्लिय्त है क्यूँ इसके अंत को लेकर
क्यूँ सोंचता कहीं हो ना जाये सांझ

सोंच रहा था गंगा तट पर बैठे ,
नाट्य ही है क्या मेरा रुदन, और मृगजल मेरी मुसकान
चित्त जिहर रहा था तभी सुना मैंने ,
सन्नाटे को चीरता एक विलाप,
दिखी दूर एक नवयौवना ,श्वेत चादर लपेटे
मन विचलित है क्यूँ इसके रुदन को लेकर
क्यूँ आतंकित हूँ साँझ को लेकर आज

देखा मैंने गंगा तट पर बैठे
ममता की लहर, और सिंदूर का विलाप
अंत था यह ,उस फौजी के पात्र का आज
मन गर्वित हुआ उस पात्र के अभिनय पर
तिरंगे की शान पे हो गयी जिसकी तरुणावस्था कुर्बान

देखा मैंने गंगा तट पर बैठे
फिर हो गयी सांझ

1 comment:

Anonymous said...

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